रेत हो गए लोग ...

रेत हो गए लोग ...
रवि प्रकाश

Saturday, May 21, 2011

कि ये आवाज़ मेरे लिए है

मैं कैसे समझूं
ये आवाज़ मेरे लिये है
जबकि एक आहत आवाज़
मेरे सामने गिरकर
छटपटाती रहती है !
मेरी आँख ,जैसे बबूल की छाल
जिसमे तैरता है
तुम्हारा चेहरा
हिलता, कोतड्डों में गुम होता हुआ
मेरा ह्रदय
जो दबा रहता है
एक पत्थर के नीचे युगों से
मुक्त होना चाहता है
एक मुल्क की तरह
संगीनो ,क्रूर आँखों
और कटीले तारों से जूझता हुआ
जिस पर एक कोयल बैठी है
वो मेरे जख्मों का गीत गाती है
सरहद के पार
और मुझे राष्ट्रगीतों की धुन पर
नाचने को कहा जाता है
रेत और रक्त से सरहदों पर
उलझा मेरा ह्रदय ,तुम्हे छूना चाहता है
एक साबुत अखंड सौंदर्य
जो अब तक कहवाघरों की
दीवारों से लड़कर लौट आती है
एक विस्थापित घूंट, जो सदियों से
गले के नीचे जा रही है
मैं वापस लौट रहा हूँ
आवाज़ और शब्दों में
प्रेम और एक मुल्क तलाशता हुआ
इसे बाँधो मत ,इसे खोल दो
जिसकी ठंडी रेत पर मैं खेलता हूँ
एक काली लंबी घनी रात है यह
जो आँखों में समाकर बंद हो जाती है
और अवाक् से होठ
एक लकीर की तरह, मेरी कहानी पर
एक टुकड़ा मुल्क रख जाते हैं
मैं तुम्हारे चेहरे पर ही विस्थापित हो जाता हूँ
उन्माद को दबाए हुए
 कि कैसे समझूं  ये आवाज़ मेरे लिए  है







 

सूर्य के हाथ से छूट रही है पृथ्वी

तुम पास बैठकर
कविता की कोई ऐसी पंक्ति गाओ
जहाँ मेरे कवि की आत्मा
निर्वस्त्र होकर
मेरे आँख का पानी मांग रही है
ये कैसा समय है
कि, ये पूरी सुबह
किसी बंजारे के गीत की तरह
धीरे-धीरे मेरी आत्मा को चीर रही है
जिसके रक्त से लाल हो जाता है आसमान
जिसके स्वाद से जवान होता है
हमारे समय का सूरज
और चमकता है माथे पर
जहाँ से टपकी पसीने की एक बूंद
जाती है मेरे नाभी तक
और विषाक्त कर देती है
मेरी समस्त कुंडलनियों को
मैं धीरे-धीरे छूटने लगता हूँ
ऐसे, कि जैसे
सूर्य के हाथ से छूट रही है पृथ्वी
सागर के एक कोने में
शाम होने को है
मैं रूठकर कितना भटकूंगा
शब्दों में