रेत हो गए लोग ...

रेत हो गए लोग ...
रवि प्रकाश

Tuesday, May 17, 2011

आवाज़ बुनने की कारीगरी

कभी बहुत अच्छा लगता तुमसे बातकर
जैसे गुबरैले सुबह का गोबर लिए
निकल जाते हैं कहाँ
मैं नहीं जानता !
कभी ऐसा लगता ,जैसे पूरी सुबह
ओस में भीगकर
धूल की तरह भारी हो गई हो,जो पांव से नहीं चिपकती
दबकर वहीँ रह जाती !
जानने का क्या है ,मैं कुछ भी नहीं जानता
हाँ कुछ चीजें याद रह जाती हैं,
एक सूत्र तलाशती हुई !
मैं कुछ बोल नहीं पाता
रात का अँधेरा मेरी जीभ का स्वाद लेकर
सदी का चाँद बुनता है
जिसे ओढ़कर दादी सोती है ,और लोग
सन्नाटे की तरफ जाते हैं !
आवाज़ बुनने की कारीगरी मुझे नहीं आती,
मेरी आँख भारी रहती है
जिसे मैं स्याही नहीं बना पाता !
ताल के किनारे खड़ी रहती हैं नरकट की फसलें
जो तय नहीं हैं किसके हिस्से में जाएँगी !
हाथ के अभाव में,
अंगूठा लिखता है इतिहास, और
जबान के अभाव में
आंसू
पेड़ों से नाचती हुई पत्तियां गिरती रहती हैं
और दरवाज़े का गोबर खेत तक पहुँचता रहता है !
मैं रोता हूँ, और भटकता हूँ
शब्द से लेकर सत्ता तक
लेकिन मुझे ,कोई अपने पास नहीं रख पाता
तुम भी कहाँ चली गई
बस रात का आखिरी पहर है
जहाँ उजाले के डर से
चौखट लांघता है आधा देश !

2 comments:

  1. आपकी रचनाओं के मध्य से गुजरना बहुत कुछ दे जाता है.... rasprabha@gmail.com पर संपर्क करें

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  2. बेहद गहन अभिव्यक्ति।

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