रेत हो गए लोग ...

रेत हो गए लोग ...
रवि प्रकाश

Sunday, October 17, 2010

बिखरें वे शब्द

इन बक्सों में बंद हैं कुछ किताबें !
मैं सोच रहा था,सीढ़ी से नीचे उतरते वक़्त
शायद इसे बिखर जाना चाहिए था ,

बिखर तो इसलिए भी जाना चाहिए था,
कि किताबों के हर पन्ने पर
तुम्हारे चेहरे की भंगिमा
कुछ और भी, लिख और कह गई है!
उन शब्दों से तुमने अपने भीतर भी झाँक लिया था,
जो तुम्हारी आज़ादी के दरवाज़े पर
ताले की तरह लटक रहे थे!

एक बार तो जरुर बिखरें वे शब्द
जिन्हें अंडरलाइन कर
उनकी अनिवार्यता को रेखांकित किया गया है !
ये वही वक़्त है !
एक बार जरुर बिखरें वे भंगिमाएं ,
जो कभी एकांत में
उसके चेहरे से गिर गई होगी !
जिसे ऐसे शब्द ने पाया होगा
जो किसी प्रेमी के ह्रदय से हो के आया होगा !

एक बार जरुर बिखर जाए वो एकांत
जिसे बल्ब की रोशनी में
उसकी परछाइयों ने समेटकर रखा होगा !
और कभी किसी वक़्त की
वो ख़ामोशी भी जरुर बिखरे
जिसमे तुमने अपने वियोग को छुपा रखा है !

जैसे जैसे तुम आगे बढती जाओगी
ये किताबें उतनी ही वापस
धीरे-धीरे पीछे लौटती जाएँगी !
जहाँ स्मृतियाँ चौखट पर चिराग की तरह जल रही होंगी !

तुम्हारा दूर देश में चले जाना
कहीं से यह साबित नहीं करता कि, प्रेम
भूगोल कि किताबों का कोई अनिवार्य अध्याय है!
जहाँ दलहन और अगहन में कोई सम्बन्ध ना हो!

तुम्हारा दूर देश में होना
कहीं से यह साबित नहीं करता कि ,
जब यह पृथ्वी घुमते हुए
सूर्य के सबसे ज्यादा निकट पंहुच जाएगी
तो सूर्य के ताप से घिरा तुम्हारा ह्रदय
अपने प्रेम को समय कि चिंताओं से मुक्त रख़ पायेगा !

हमारा दूर होना ,
कहीं से यह साबित नहीं करता
कि इतिहास जब अपने को
पूरा चक्र दोहरा रहा होगा
तो हम भी उस पल को दोहरा नहीं रहे होंगे !






6 comments:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति|

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  2. हमारा दूर होना ,
    कहीं से यह साबित नहीं करता
    कि इतिहास जब अपने को
    पूरा चक्र दोहरा रहा होगा
    तो हम भी उस पल को दोहरा नहीं रहे होंगे
    good

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  3. सुन्दर , बिखर गए हैं शब्द कलम के जरिये से ...अहसास जो मन ने समेटे हैं ...

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  4. बेहद गहन और उम्दा अभिव्यक्ति।

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  5. आपका ब्लॉग शीर्षक काफ़ी कुछ कह रहा है।

    शुक्रिया।

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