कामरेड चंद्रशेखर लिए
न तुम्हारे लिए लिखा
न तुम्हारे सिवा किसी और के लिए
भाव और भाषा के बीच
विस्तारित हो तुम
धरती और आकाश के बीच
खिली धूप की तरह
हर शब्द के लिए, आवेदन
और भाव के लिए तुम्हारी दुनिया का
एक सिरे से तुम्हें बार बार खोलता हूँ
और हर बार एहसास होता है
दुनिया के नंगेपन का
और संविधान के बांझपन का
जहाँ संशोधनों की लड़ाई
दंगो से जीती जा रही है
और बहसों की बलात्त्कार से
इस आदिम युग में
जहाँ शब्द और भाव टकरा रहें है
दुनियां में जिसका अर्थं तुम्हारी लड़ाई से खुलना है
महज एक चिंगारी की तलाश में
खोल रहा हूँ तुम्हें बार बार,
और हर बार
क्योंकि ,तुम्हारी लड़ाई से
इस दुनियां की सुबह लिखी जानी है !
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