रेत हो गए लोग ...

रेत हो गए लोग ...
रवि प्रकाश

Saturday, July 31, 2010

पाती

कैसे पढूं ये पाती
जो लिखी हैं पुरुवा हवाओं पर
ताज़ा और टटके जज्बात
मेरे इस शहर को शहर को बनाने तक
पड़ चुके होंगे पुराने
और मौसम बदल चूका होगा मेरे गाँव का !

सारे आंसू समां गए होंगे
चटकती हुई धरती की दरारों में
खेतों की सींचने में
शब्दों के कल्ले कैसे फूटेंगे
सूखे हुए पपडीदार होंठो पर
ऐसे में पुरुवा हवांए
पेंड़ो की पुंगियों से जमीन पर सरक जायेंगी
छोड़ देंगी तैरकर बटोरना संवेदनाओं को
ऐसे में दादी तुम और तुम
सिर्फ ईश्वर से प्रार्थना कर सकोगी
मैं जहाँ होऊं
सुखी और शांत होऊ!

Friday, July 30, 2010

दादी

मेरी दादी की आँखों पर होता है
मोटा धुंधले शीशों वाला चश्मा
जिसकी कमानी में एक डोर बंधी है
जाती है जो पीछे की ओर
दूसरी कमानी की तरफ
और बाध देती है दादी के पुरे सर को
उसके अन्दर से पुरे घर को देखती हैं दादी की आँखे

कितनी बार कहा इस लड़के से
सूरज नारायण को उगते ही जल दे दिया कर,
अन्न छु लिया कर,
दातून कर लिया कर,
रोज़ एक ही प्लास्टिक मुह में डाल लेता है
फिर थककर कहती कि `जुग जमाना बदल गयल ह`
दादी का चश्मा

मेरी दादी के पास होती है एक छड़ी
ब्रज के बांसों वाली, खोखली नहीं
जिसके सहारे लगा आती हैं
पुरे घर का चक्कर !
देख आती है गैया को
दे आती हैं अपने हिस्से का कुछ भोजन
इसी डंडे के सहारे
जैसे हांक आती हैं आधुनिकता को
दादी कि छड़ी
मेरी दादी के पास होता है एक हुक्का
जिसपे चढ़ती है कुम्हार कि चीलम,
चूल्हे की आग,
बनिए का तम्बाकू,
और हाँ बढई का शिल्प,
घुडघुडा कर जब दादी इसे पीती थी
कितनी उर्जा मिलती थी उनको
दादी का हुक्का
दादी की मृत्तयु पर टिखटी के सिरहाने
हमने लाकर रख दिया था
दादी का चश्मा ,
दादी की छड़ी,
और दादी का हुक्का
और लेजाकर वो सब विसर्जित कर दिया
सरयू में
जिसके सहारे दादी लड़ती थी
बाज़ार और बाजारुपन से !

अँधेरे के खिलाफ

जब भी रात घनी हुई
आपनी गोंद में लिए दादी ने
अपनी किस्सों की दुनिया से
मेरी स्मृतियों के आसमान पर टाँके
चाँद ,तारे और जुगनू
खिंच डाले गुहा अन्धकार के आसमानी स्लेट पर
चान तारों के शब्द चित्र !

और माँ
जब सूरज घुलने लगता
सागर के घूँघट में !
आँगन में उतरी ताड़ की परछाई
धीरे धीरे वापस लौटने लगती,
चमकती गुलमोहर की पत्तियां
ओस के रंग की हो जाती
ऐसे में माँ
रसोईघर में दिया जलाती
आँचल का एक कोना पकड
ढांपे दिए को
आँगन पार करती
एकटक लौ की निहारती हुई
दालान के चौकठ पर रख आती !

यही मेरे प्रतिरोध की प्रेरणाए हैं
अँधेरे के खिलाफ !
कामरेड चंद्रशेखर लिए

न तुम्हारे लिए लिखा
न तुम्हारे सिवा किसी और के लिए
भाव और भाषा के बीच
विस्तारित हो तुम
धरती और आकाश के बीच
खिली धूप की तरह
हर शब्द के लिए, आवेदन
और भाव के लिए तुम्हारी दुनिया का
एक सिरे से तुम्हें बार बार खोलता हूँ
और हर बार एहसास होता है
दुनिया के नंगेपन का
और संविधान के बांझपन का
जहाँ संशोधनों की लड़ाई
दंगो से जीती जा रही है
और बहसों की बलात्त्कार से

इस आदिम युग में
जहाँ शब्द और भाव टकरा रहें है
दुनियां में जिसका अर्थं तुम्हारी लड़ाई से खुलना है
महज एक चिंगारी की तलाश में
खोल रहा हूँ तुम्हें बार बार,
और हर बार
क्योंकि ,तुम्हारी लड़ाई से
इस दुनियां की सुबह लिखी जानी है !

Thursday, July 29, 2010

अखबार



मरोड़े गए कबूतर की तरह
फड़फड़ करता हुआ
रोशनदान से गिरता है अखबार
और अपनी आखिरी साँसे गिनने लगता है
जनता, लोकतंत्र और रोटी के साथ!

हर घर
हर सुबह
आँख खुलने से पहले ही
सैकड़ों लाशें फड़फड़आती हैं रोशनदान से
लेकिन सभी घुस नहीं पाती हैं अन्दर!

निः संतान हो चुके लोग
लाशों के ढेर में
अपनी संतानों की तलाश में हैं ,
वहीँ उन पर निग़ाह गडाए
निः संतान दम्पतियों की निराशा दूर करने वाला
कैप्सूलों का व्यापारी है !
और रक्त के धब्बे साफ करने वाला
डिटरर्जेंटों का व्यापारी है!
क्या मेरे देश में व्यापारी
राजनेता का उत्तराधिकारी है ?

इस रोशनदान से
खून ही खून टपकने लगता है
सने हुए हाथों से मैं जनता का आदमी
रोटी के साथ
लोकतंत्र का सबसे साफ हिस्सा
अपने हाथ में लेना चाहता हूँ
आखिर वो कौन सा हिस्सा होगा ?

वही, जो लाशो के इस बण्डल में
नागी जांघो,वाईनो, बोतलों, खिखियाते चेहरों
और नए जिस्मों के आवेदन के साथ
मेरी माँ ,बहन और प्रेमिका के लिए
तेब्लोयेड के नाम से अलग से बाँध दिया गया है !

खबर दर खबर पढ़ते हुए
मैं माँ ,बहन और रोटी की सुरक्षा की गारंटी की तलाश में हूँ
क्योंकि आज जब ये जनता
नारों में रोटी लटकाए
लोकतंत्र के सामने खड़ी है
तो इसके पास
चुने हुए प्रतिनिधियों के रूप में व्यापारी ,
निःसंतानों के लिए कैप्सूलों की डिस्पेंसरी ,
रक्त में सने लोगो के लिए डिटर्जेंट ,
और रोटी के लिया विज्ञापन ,
के अतिरिक्क्त देने के लिए
और कुछ नहीं है !
आनंद और जरुरत

बारिश की हल्की फुहारों के बाद
जब भी मिट्टी महकती है
बहुत याद आते है मंगरू चाचा

पगडण्डी के इस तरफ
मटर के पौधे किकोरी मारे बैठे हुए थे,
उछल कर देखने को आतुर!
और दूसरी तरफ घने बेहये के बीच से
रह-रह कर
झांक रहा था तालाब,
यहाँ से काफी दूर था उनका घर ,
लेकिन न जाने कब उनकी स्मृतियों में
बस गया था तालाब
इसी तालाब में डूबकर मरे थे !
बारिश तो कई दिनों से हो रही थी
हल्की -हल्की
व्यस्त रहते थे
चूती मड़ई की कासों को दुरुस्त करने में

मौसम की तरह चूल्हा भी ठंडा था
और उस पर चूती बूदें
अपने साथ चूल्हे को गलाए
तालाब की ओर लिए जा रही थीं
बस साथ ही गलते और बहते जा रहे थे मंगरू चाचा ,
उन्हें मिट्टी कभी नहीं महकती थी

दरअसल आनंद और जरुरत के बीच
रोटी की गहराई में
डूब गई थे मंगरू चाचा !
रेत हो गए लोग

एक दिन पा लेना है तुम्हें
पीपल कि कोपलों पे पड़ती
पीली धूप कि तरह !
गेंहू कि किसलाई बालियों में
दूध कि तरह!
अभी तुम मेरे लिए
मुट्ठी में बंद रेत कि तरह हो
भुरभुराती हुई !

मेरे घर से एक पकडंदी
नदी कि तरफ जाती है
वो नदी सुखी हुई है,
यहाँ सिर्फ रेत ही रेत है!
कुत्ते मरे हुए जानवरों को नोच रहे है,
बच्चे जली लाशों के राख के ढेर में
कुछ खोज रहें है
कैसा खेल खेल रहे हैं वे ?

वो दूर बबूल के ढेरों पेड़
बंजर और कटीले हो चुके हैं!
इस नदी की पंखो पे उड़ने वाली नावे
आधी रेत में धस चुकी हैं ,
और पतवार कहीं खो गई है !

लेकिन मेरी स्मृतियों में कहीं, अभी भी
नदी का बहाव बसा हुआ है
बगदाद की तरह !
फैले पंखों पे उड़ती नावे बसी हैं
पानी पे छपकते बच्चों की तरह!

नदी तुम
हिमालय की गोंद में क्यों चुप गई हो ?
तुम्हारी गोंद में बसे लोग
रेत हो गए हैं
उन्हें पाना, तुम्हें फिर से
फिर -फिर से ,
सागर की तरफ जाते हुए देखना है
कितनी कोशिशों के बाद

कितनी कोशिशों के बाद
एक निरर्थक एहसास पाले हुए
कि नहीं गढ़ सका मैं तुम्हारे लिए
शब्दों का विन्यास
अपने ह्रदय का संछिप्त इतिहास
आत्मा का एकालाप !

कभी कभी तो मन करता है
रक्त की तरह दौड़ पडू
अपने शब्दों की धमनियों में
और निचोड़ दूँ अपनी सारी अकुलाहट
कि कैसे बांधू अपनी आत्मा के एकालाप को !

हर बार और बार बार कहा गया
तुम मेरे लिए
चांदनी रात कि तरह
अँधेरे में जुगनू कि तरह
आँखों में बसे ख्वाब कि तरह
बसंत और बरसात कि तरह
हर तरह तुम मेरे लिया सब कुछ हो !

बावजूद इसके
तुम जलाई गई
छोड़ दी गई फिर भी
एक बनवास के बाद फिर-फिर से
दानवी इमारतों के जंगल में
दफन कर दी गई
घर कि काल कोठरियों में,

और घर के सजे धजे से
मेहमान कमरे में
मैं इज्जत का लिबास ओढ़े बैठा हूँ
और सड़क पर
तेज़ाब कि बोतल लिए एक हत्त्यारा बैठा है !

ऐसे में कौन सी आड़ी तिरछी रेखा में
टांक दूं
आत्मा के एकालाप को
और कह दूं
जो सब संचित है, रक्त रंजित है
मेरे पास कोई शब्द नहीं है
विन्यास नहीं है
उपमाओं का लिबास नहीं है
मान्यताओं पे विश्वास नहीं है
तुम्हारे मेरे बीच कोई सेतु नहीं है
धूमिल के लिए
कवितायें संसद के
हर बलात्कार के बाद
पैदा हुई उस संतान की तरह हैं
जिसे जिंदगी भर अपने
बाप की तलाश रहती है
और माँ को उसके
गुनाहगार की !

गोष्ठियों ,सम्मेलनों और न्यायालयों से
होती हुई जब ये कवितायें
संसद में बहस के लिए रखी जाती है
तो सारी संसद मौन हो जाती है !
वक्क्तव्यों और विचारों के धुल कचरे
झाड कर फ़ेंक दिए जाते है
दिमाग जकड जाता है
उंगलियाँ अकड़ जाती हैं
और इसीलिए कवितायें;
एक सार्थक वक्तव्य होते हुए भी
निरर्थक गवाही हैं !
धातु युग
रौंद डालते हैं तुम्हारे बमवर्षक
दुनियां की सरहदें
आसमान में तारों की जगह
टिमटिमाती रहती हैं तुम्हारे बमवर्षकों की बत्तियां !
तुम क्या समझते हो ;
क्या इस युग के सारे हथियार
सिर्फ लोहे बनाए जायेंगे ?
नहीं
ये धातु युग नहीं है
अगर कहते हो इसे ज्ञान और विज्ञान युग
तोह इस युग का हथियार
विचारों से गढ़ा जाएगा
अगर सुन सकते हो तो सुनो !
इस युग का हथियार
जो विचारों से गढ़ा जाएगा
हम गढ़ेगे
और हर चीख का हिसाब मांगेंगे

राम और रोटी
जबसे "राम" और रोटी का नाम
साथ में लिया जाने लगा है
न जाने क्यों ऐसा लगता है
कि चौराहे पर खड़ी
एकलव्य की मूर्ति के,
तीर के सामने
शम्बूक को खड़ा कर दिया गया है
और हिटलर
मेरे तवे पर फूलती
रोटी पर नाच रहा है !

Wednesday, July 28, 2010

कबूलनामा
सुनो, मैं
दुनिया की सभ्यताओं की ढूह पर
बैठा हुआ हूँ !
सुनो की
जिस ढूह पर बैठकर मैं
यह प्रस्तावना लिख रहा हूँ,
उस ढूह के निचे
न जाने कितनी माओं के होंठो पर
रक्त में सनी हुई लोरियां कैद हैं!
न जाने कितने बच्चों की
सुनी पड़ी आँखे
एक चीथड़े आँचल की तलाश में
खिलौनों और हथियारों के अंतर को पाट रही हैं!
मैं देख रहा हूँ
इसी ढूह के निचे
कितने बच्चे सुखी हुई छाती नोच रहे है
और बगल में बैठा हुआ कुत्ता
दुम हिला रहा है!

सुनो,
की मैं देख रहा हूँ की
युद्ध पर जाने के आदेश में
बैठे हुए सिपाही बारूद और गोलियां फांक रहे हैं
और सदेश लिखने के लिए
शराब की बोतलों के लेबल उतार रहे हैं!
मैं देख रहा हूँ
सात समंदर पार बैठा हुआ
एक आदमखोर
मेरे महबूब की हाथों की मेहँदी को
रामपुरी चाकू से छील रहा है
और उसके माथे के सिन्दूर का पेटेंट
मोनसेंटो ,वालमार्ट ,और यूनियन कार्बाइड को भेज रहा है!
सुनो
मगर सिर्फ ये मत समझो
की सुबह की पहली किरण के साथ
तुम्हारे घर की कुण्डी खोलने के लिए
ये किसी मुर्गे की बाग़ है
और ना ही पूरी रात आँखों में आये आंसुओं का हिसाब
ये सात समंदर पार बैठे
उस आदमखोर को
दुनिया की अदालत में
फांसी के फंदे पर लटकाए जाने से पूर्व
उसकी हलक में उंगलियाँ डालकर
पढाया जाने वाला "कबूलनामा" है !